Sunday, November 15, 2009

जाने क्यों
जाने क्यों,
हर बार मैं
आसमां से
ज़मी पे गिरता हूँ
और यूँ ही
अनजानी राहों में
भटकता फिरता हूँ,
मंजिलें नहीं
जिन राहों की
न जाने क्यों
मैं उन्ही राहों में
मंजिलें ढूँढा करता हूँ,
आज तक
जितने भी सपने टूटे
न जाने क्यों
मैं उन सपनों को
सपनों में ही
जोड़ा करता हूँ;
जाने क्यों
मैं, हर बार
आसमान से
ज़मीं पे गिरता हूँ
गिरता हूँ,
और हर बार
टूटता हूँ
फिर भी
गिर कर
हर बार
उठता हूँ.  













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