Friday, January 15, 2010

दीवार
कल जैसे
सब कुछ ठीक था
आज, न जाने क्यों
सब, बदला-बदला सा है.
कल तक जहाँ न थी, बंदिशें
आज न जाने क्यों
सब कुछ सहमा-सहमा सा है.
कल तक जो थी, गलियाँ
भरी और छलकती
स्नेह और प्यार से
आज न जाने क्यों,
भरी हैं,
खामोशियों और खार से
और कभी
इन्हीं गलियों में
खोई थी, बंदिशें सारी
पर अब न जाने क्यों
जुड़ गयीं हैं, चंद इटें
नफरत की दीवार से, और
खिंची गयी है एक रेखा
लहू की एक धार से.
कल तक सब कुछ हमारा था
आज, न जाने क्यों,
ये मेरा वो तुम्हारा है,
और शायद
हवाओं का भी
एक बंटवारा है.
जाने क्यों,
आज, वो किलकारियां
अधरों पे बिखड़ी
एक मुट्ठी मुस्कान
दब गयी है,
घृणा की इन्हीं
मजबूत दीवारों के तले.
इन्ही साँसों ने तो
कल महसूस किया था
प्यार की अप्रतिम
सुगंध को.
इसी मन ने तो
कल महसूस की थी
रिश्तों की खुली धूप को
पर, आज क्या क्या हुआ कि
हर सुगंध, जैसे
कभी न मिटने  वाली
दुर्गन्ध है.
खुली धूप, जैसे
बस दीवारों की
परछाई है.
आज न जाने क्यों,
वो गलियां
काफी संकरी हो गयी है,
और सब कुछ
बदला-बदला सा है,
पर ये मन, अब भी
न जाने क्यों,
भटकता है,
इन्हीं संकरी
गलियों के बीच
एक आशा लिए, कि
शायद ये दीवारें
कल गिरेंगी,
रिश्तों की धूप,
भावनाओं कि महक
फिर से मेरे
आँगन में फैलेगी
और जिन परछाइयों के तले
जीता था, मैं कल तक
वो ज़िन्दगी की कड़ी धूप में
मेरे लिए, उम्र भर
एक छाया बनेगी.

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